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Thursday, August 14, 2014

मन धरातल है पुण्य और पाप का : मुनि विमलसागर

बालोतरा। जैनाचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज के शिष्य क्रांतिकारी प्रवचनकार मुनि विमलसागर महाराज ने कहा मन मनुष्य की जिन्दगी का सबसे महŸवपूर्ण कारक है। यही पुण्य और पाप का धरातल है। मन की पृष्ठभूमि पर ही सर्वप्रथम अच्छे या बुरे विचार उद्भूत होते हैं। ये विचार ही क्रियात्मक बनकर अच्छे-बुरे कार्य करवाते है। इसीलिए हमारी गति-प्रगति-दुर्गति सब मन में हैं, मन की वजह से हैं। मन को साफ-सुथरा रखना ही साधना है। अच्छे विचारों और शुभकार्यों में इसे जोडक़र हम जीवन की उन्नति का मार्ग प्रषस्त कर सकते हैं। नाकोड़ा तीर्थ परिसर में विराट् धर्मसभा को संबोधित करते हुए बुधवार को मुनिवर ने ये बात कही। मुनिवर के ओजस्वी प्रवचनों को सुनने के लिए लोग दूर-दूर से उमड़ रहे हैं। प्रतिदिन प्रात: 9 बजते ही अनेक गॉवों-षहरों से श्रोतागण वाहनों से नाकोड़ा तीर्थ पहुंच रहे हैं। ज्ञान की इस सरिता को आगे बढ़ाते हुए मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि धर्म के पथ पर करण-उपकरण से भी महŸवपूर्ण तत्व है अन्त:करण। अन्त:करण की शुद्धता में धर्म निवास करता है। मन की मलिनता धर्म को नष्ट कर देती है। धर्म की साधना उपासना का तात्पर्य है मन को पवित्र बनाना, बनाये रखना। आज हर धर्म परंपरा में बड़ी मात्रा में धर्म के विधी-विधान और धार्मिक आयोजन होते हैं। लेकिन मन की शुद्धता का लक्ष्य गौण रहता है। हकीकत में हमारी धार्मिक प्रवृश्रियां हमारी मानसिक वृश्रियों को ठीक करने या बदलने के लिए होनी चाहिए। मुनिवर ने आगे कहा कि पुण्य और पाप का प्रभाव मन से निर्धारित होता है। पूजा के लिए हाथ में बहुमूल्य सामग्री हो और मन भावषून्य हो तो यह विडम्बना है। उसी तरह पास में कुछ भी न हों और मन में अत्यंत भक्तिभावना-सद्भावना और पवित्रता हो तो वह श्रेयकारी है। साधना के पथ पर साधनों का महŸव है। बिना साधनों के साधना हो नहीं सकेगी। लेकिन साधन ही सर्वस्व नहीं है। साधक के मन की सुन्दरता मूल्यवान् है। मुनि ने कहा कि प्रतिपल जीवन बीत रहा है। इसे बीतने से रोका नहीं जा सकता। लेकिन ये अच्छे विचारों और अच्छे कार्यो में बीतें, यह व्यवस्था की जा सकती है। हम सभी के जीवन का यह अषुभ पक्ष है कि हम अच्छे परिणाम चाहते हैं, अच्छी प्रक्रिया नही चाहते। अच्छा रीजल्ट चाहते हैं लेकिन अच्छा पेपर नहीं लिखते।
प्रवचन देते हुए मुनिवर 
आचार्य पद्मसागरसूरीष्वर महाराज ने कहा कि आयुर्वेद का पुराना ग्रंथ है चरक संहिता। 5000 वर्ष प्राचीन इस ग्रंथ का पहला ही सूत्र बहुत मार्मिक है। चरक संहिता कहती है कि राग-द्धेष के भावों से रोग जन्म लेते हैं। राग-द्धेष के भावों को षिथिल बनाने के लिए साŸिवक आहार सुन्दर उपाय है। जैसा हमारा अन्न होता है, वैसा ही हमारा मन बनता है। शराब-मांस-तम्बाखू-धूम्रपान आदि मन को बिगाड़ते हैं। राग-द्धेष को बढ़ाते हैं। इसीलिए साधकों को साŸिवक आहार का निर्देष होता है। आचार्य प्रवर ने कहा कि आहार की लोलुपता खतरनाक होती है। जो आहार का गुलाम बनता है, वह मन का भी गुलाम होता है। यह गुलामी शारीरिक व मानसिक बीमारी लाती है। यह रसेन्द्रिय पर और मन पर नियंत्रण करके ही मनुष्य सुखी बन सकता है। पेट भरने के लिए व भजन के लिए भोजन होता है। भोजन से पहले और अंत में अधिक पानी पीना विष के तुल्य है। भोजन के मध्य में पीया गया अल्प पानी अमृत तुल्य माना गया है। भोजन करना एक बहुत बड़ी कला है। कई लोग अज्ञानता में ऐसी-ऐसी वस्तुएं खाते हैं कि वे अपने शरीर के साथ दुष्टता करते हैं। ऐसा करने से शरीर रोगग्रस्त बनता है। आचार्य पद्मसागरसूरीष्वर महाराज ने कहा कि साधन साध्य को पाने के लिए होते हैं। सूंई-धागे के बिना दर्जी का काम नहीं होता। रंग और ब्रष न हो तो चित्रकार बेकार है। पेट्रोल-डीजल और ड्राईवर न हो तो महंगी गाड़ी व्यर्थ है। उसी तरह धर्म की साधना न हो तो यह शरीर भी व्यर्थ है। शरीर का अधिकतम उपयोग सत्कार्यों में करना चाहिए। तभी इसकी उपयोगिता सार्थक होगी और यह निरोगी रहेगा। जो शरीर का दुष्कृत्यों में अथवा भोग-सुख के लिए ही उपयोग करते हैं, वे ज्यादा बीमार और पीड़ीत रहते हैं।
धर्मषास्त्रों के उल्लेख करते हुए आचार्य देव ने कहा कि 100 काम छोडक़र भी पहले भोजन करना चाहिए। एक हजार कार्य हो, फिर भी स्नान-संध्या-नित्यक्रम करना चाहिए। एक लाख कार्य छोडक़र भी द्धार पर आये याचक को दान देना चाहिए। और एक करोड़ काम भी आ जायें, फिर भी भगवान की आराधना नहीं छोडऩी चाहिए। आज तो मनुष्य मतलबी बन रहा है। सिर्फ स्वार्थ के वक्त भगवान को याद करता है और मतलब पूरा हो जाने पर भूल भी जाता है। दिन में कितनी ही बार आदमी भोजन करता है और अस्वस्थ बनता है। ये सब अज्ञानताएं दूर की जानी चाहिए।
संयुक्त आयकर आयुक्त का किया सम्मान
आयकर संयुक्त आयुक्त श्री जयसिंहजी जोधपुर, आयकर अधिकारी श्री लक्षमणसिंह जी बालोतरा, वरिष्ठ वकिल एवं समाजसेवी श्री ओमप्रकाश जी बाठियां नाकोड़ा तीर्थाधिपति श्री पाश्र्वनाथ भगवान एवं अधिष्ठायक श्री भैरव देवजी महाराज के दर्शन वन्दन किये एवं चातुर्मासार्थ विराजित आचार्य भगवंत पद्मसागरसूरीष्वर महाराज से आर्षीवाद प्राप्त किया, उनका ट्रस्ट मण्डल कोषाध्यक्ष गणपतचन्द पटवारी, ट्रस्टी मदनलाल सालेचा, उत्तमचन्द मेहता, हुलास बाफना, महेन्द्रकुमार चौपड़ा द्वारा तिलक, माला व साफा एवं मोमेन्टो से बहुमान किया गया।

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