बालोतरा। राष्ट्रसंत आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज ने कहा कि क्रोध, घृणा, हताषा, चिन्ता, अपमान, बदले की भावना, हिंसा, दुराग्रह आदि अनेक विषय-कशायों की आग में दहक रहा है यह संसार। शास्त्रों ने इसे दावानल कहा है। हजारों आत्माएं प्रतिदिन इस दावानल में स्वाहा होती है। जो धर्म-अध्यात्म की शरण लेते हैं, वे ही जलने से बच पाते हैं। जो बच जाते हैं, वे विरले होते हैं। जलता हुआ यह संसार जिन्हें तमाशा लगता है, वे अज्ञानी हैं। यह मनुष्य का पागलपन है कि वह अग्नि की ज्वालाओं को दीपावली की रोशनी समझ रहा है। नाकोड़ा तीर्थ में मंगलवार को विशाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्यश्री ने यह बात कहीं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से संसार की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा कि आग लगते ही फायर ब्रिगेड बुलाने पड़ते हैं। साधु-संत आध्यात्मिक फायर ब्रिगेडर हैं। वे आपको संसार में जलकर भस्म होने से बचाते हैं। साधु-संतो का काम है विषय-कषाय की आग में जलती आत्माओं पर अध्यात्म का शीतल नीर बरसाना और अग्निज्वालाओं को ठंडा करना। सारे धर्मों के उपदेषों का यही सार है। धर्म-अध्यात्म तडफ़ती आत्माओं को शांति और राहत देता है। आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज ने आगे कहा कि राह पर विघार्थी को देखते ही विघालय याद आता है। पुलिस को देखते ही पुलिस स्टेषन और जेल याद आते है। वकिल को देखते ही कानून और न्यायालय सामने दिखाई देते हैं। डॉक्टर को देखते ही अस्पताल और मरीज याद आते हैं। तो मेरा प्रष्न है कि साधु-संतो को देखकर क्या याद आता है! इनको देखकर धर्म-अध्यात्म और परलोक याद आना चाहिए। साधु-संतो के दर्षन से भलाई की षिक्षा लेनी चाहिए।
पवित्र साधु-संत ही संसार में अब एक मात्र वरदान और जीवन के आधार हैं। आचार्य प्रवर ने आगे कहा कि संसार में रहकर भी संसार से अलिप्त रहना, आध्यात्मिक दृष्टि है। जिसे ऐसा नजरिया प्राप्त हो जाता है वो आध्यात्मिक उत्कर्ष को साध लेता है। संसार में रहना बुरा नहीं है, संसार में लीप्त होना बुरा है। अलिप्तता के असीम सुख है। दर्पण को देखो। वह परिचय सबका करता है, पर संग्रह किसी का नहीं करता। हमेषा कोरा और साफ सुथरा रहता है। जो जैसा उसके सामने आता है, वैसा वो दिखलाता है। लेकिन किसी का कोई भी रूप वह ग्रहण नहीं करता। हम सदैव सारी चीजें ओढ़ते रहते हैं। मन को आसक्त बनाते रहते हैं। आसक्ति और मोह-माया में अपना मूल रूप नष्ट करते रहते हैं। दर्पण से शिक्षा लेनी चाहिए। मक्खन छाछ में रहता है। छाछ से ही पैदा होता है। फिर भी छाछ से भिन्न रहता है। एक बार मंथन हो जाने के बार फिर कभी वह छाछ में नहीं डूबता। संसार में जीने की यही विधी है। क्रांतिकारी विचारक मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि जो मन में होता है, वह कभी न कभी व्यवहार में आ ही जाता है। हम किसी को भी धोखा दे सकते हैं, परंतु अपने आप के साथ बनावट नहीं कर सकते। जो मन में नहीं होता और बाहर दिखाने की कौषीष करते हैं, वह दंभ और पाखण्ड बन जाता है। त्याग और अध्यात्म मन में प्रगाढ़ बनाया जाना चाहिए। उपरी धर्म उपासना या दिखावे की आराधना का कोई औचित्य नहीं है। मन के परिवर्तन से ही जीवन के परिवर्तन का शुभारंभ हो सकता है। शास्त्रों के उपदेषों और सत्संगों का श्रवण मन को बदलने के लिए है। जो मन से वैरागी होते हैं, संसार की मोह-माया उन्हें प्रभावित नहीं करता। मुनिवर ने आगे कहा कि विनय, निर्लिप्तता, सहजता, सरलता, प्रमाणिकता, निष्कपटता, उदारता, कुलीनता, सज्जनता आदि साधक होने के लक्षण है। ज्यादा बोलना, ज्यादा खाना, प्रपंच करना, निन्दक होना, भोग में अनुरक्त रहना आदि विराधक होने के संकेत हैं। जो जीवनभर हाय-हाय करते रहते हैं, उन्हें अंत समय में राम या अरिहंत याद नहीं आ सकते। अध्यात्म का अभ्यास जरूरी है। अचानक कोई चमत्कार नहीं हो सकता। जैसा करते हैं, वैसा भुगतना पड़ता है। जीवनपर्यन्त पापों में अनुरक्त रहें और फिर अच्छी जिन्दगी या अच्छी मौत चाहें, यह कैसे हो सकता है।
मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि भगवान व देवी-देवताओं के पास लोग चमत्कारों के लिए जाते है। अपने जीवन परिर्वतन के लिए नहीं जाते। हम बिना परिश्रम और बिना जीवन परिवर्तन के, सिर्फ वरदान चाहते हैं। यह कैसी प्रार्थना है और कैसी धर्म उपासना है। अगर चमत्कार इतने सस्ते और सरल हों तो फिर कठिन साधना की कोई आवश्यकता ही नहीं बचेगी। मुनि विमलसागर महाराज ने आगे कहा कि धर्म साधना आदतन नहीं, स्वाभाविक होनी चाहिए। आदत और स्वभाव में गहरा अंतर है। आदत ओढ़ी हुई होती है। स्वभाव भीतर से प्रकट होता है। जो स्वाभाविक होता है, वह सहज भी होता है। उसमें दिखावा या बनावट नहीं होती। वह वास्तविक होता है। पंन्यास देवेन्द्रसागर महाराज ने भी धर्मसभा को संबोधित किया। चातुर्मास समिति के संयोजक गणपतचन्द पटवारी ने बताया कि 14 व 15 अगस्त को सामूहिक सांझी व महेंदी रचना दोपहर 2:30 बजे आयोजित होगी। तीन दिन का तपोत्सव 14 अगस्त से प्रारंभ होगा। बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं का तपोत्सव के उपलक्ष्य में नाकोड़ा तीर्थ में आना प्रारंभ हो गया है।
पवित्र साधु-संत ही संसार में अब एक मात्र वरदान और जीवन के आधार हैं। आचार्य प्रवर ने आगे कहा कि संसार में रहकर भी संसार से अलिप्त रहना, आध्यात्मिक दृष्टि है। जिसे ऐसा नजरिया प्राप्त हो जाता है वो आध्यात्मिक उत्कर्ष को साध लेता है। संसार में रहना बुरा नहीं है, संसार में लीप्त होना बुरा है। अलिप्तता के असीम सुख है। दर्पण को देखो। वह परिचय सबका करता है, पर संग्रह किसी का नहीं करता। हमेषा कोरा और साफ सुथरा रहता है। जो जैसा उसके सामने आता है, वैसा वो दिखलाता है। लेकिन किसी का कोई भी रूप वह ग्रहण नहीं करता। हम सदैव सारी चीजें ओढ़ते रहते हैं। मन को आसक्त बनाते रहते हैं। आसक्ति और मोह-माया में अपना मूल रूप नष्ट करते रहते हैं। दर्पण से शिक्षा लेनी चाहिए। मक्खन छाछ में रहता है। छाछ से ही पैदा होता है। फिर भी छाछ से भिन्न रहता है। एक बार मंथन हो जाने के बार फिर कभी वह छाछ में नहीं डूबता। संसार में जीने की यही विधी है। क्रांतिकारी विचारक मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि जो मन में होता है, वह कभी न कभी व्यवहार में आ ही जाता है। हम किसी को भी धोखा दे सकते हैं, परंतु अपने आप के साथ बनावट नहीं कर सकते। जो मन में नहीं होता और बाहर दिखाने की कौषीष करते हैं, वह दंभ और पाखण्ड बन जाता है। त्याग और अध्यात्म मन में प्रगाढ़ बनाया जाना चाहिए। उपरी धर्म उपासना या दिखावे की आराधना का कोई औचित्य नहीं है। मन के परिवर्तन से ही जीवन के परिवर्तन का शुभारंभ हो सकता है। शास्त्रों के उपदेषों और सत्संगों का श्रवण मन को बदलने के लिए है। जो मन से वैरागी होते हैं, संसार की मोह-माया उन्हें प्रभावित नहीं करता। मुनिवर ने आगे कहा कि विनय, निर्लिप्तता, सहजता, सरलता, प्रमाणिकता, निष्कपटता, उदारता, कुलीनता, सज्जनता आदि साधक होने के लक्षण है। ज्यादा बोलना, ज्यादा खाना, प्रपंच करना, निन्दक होना, भोग में अनुरक्त रहना आदि विराधक होने के संकेत हैं। जो जीवनभर हाय-हाय करते रहते हैं, उन्हें अंत समय में राम या अरिहंत याद नहीं आ सकते। अध्यात्म का अभ्यास जरूरी है। अचानक कोई चमत्कार नहीं हो सकता। जैसा करते हैं, वैसा भुगतना पड़ता है। जीवनपर्यन्त पापों में अनुरक्त रहें और फिर अच्छी जिन्दगी या अच्छी मौत चाहें, यह कैसे हो सकता है।
मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि भगवान व देवी-देवताओं के पास लोग चमत्कारों के लिए जाते है। अपने जीवन परिर्वतन के लिए नहीं जाते। हम बिना परिश्रम और बिना जीवन परिवर्तन के, सिर्फ वरदान चाहते हैं। यह कैसी प्रार्थना है और कैसी धर्म उपासना है। अगर चमत्कार इतने सस्ते और सरल हों तो फिर कठिन साधना की कोई आवश्यकता ही नहीं बचेगी। मुनि विमलसागर महाराज ने आगे कहा कि धर्म साधना आदतन नहीं, स्वाभाविक होनी चाहिए। आदत और स्वभाव में गहरा अंतर है। आदत ओढ़ी हुई होती है। स्वभाव भीतर से प्रकट होता है। जो स्वाभाविक होता है, वह सहज भी होता है। उसमें दिखावा या बनावट नहीं होती। वह वास्तविक होता है। पंन्यास देवेन्द्रसागर महाराज ने भी धर्मसभा को संबोधित किया। चातुर्मास समिति के संयोजक गणपतचन्द पटवारी ने बताया कि 14 व 15 अगस्त को सामूहिक सांझी व महेंदी रचना दोपहर 2:30 बजे आयोजित होगी। तीन दिन का तपोत्सव 14 अगस्त से प्रारंभ होगा। बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं का तपोत्सव के उपलक्ष्य में नाकोड़ा तीर्थ में आना प्रारंभ हो गया है।
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