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Sunday, August 24, 2014

योग में हैं जीवन की सार्थकता : मुनि विमलसागर

बालोतरा। राष्ट्रसंत आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज के क्रांतिकारी शिष्य मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि योग और त्याग के समक्ष संसार की सारी समृद्धि फीकी है। जीवन की सार्थकता भोग में नहीं, योग और ब्रह्मचर्य की साधना में निहीत है। भोग उर्जा की बर्बादी है। योग उर्जा का रूपांतरण है। भोग के पथ पर परितृप्ति असंभव है। योग और त्याग के असीम सुख है। धन, धनवान और भोग-उपभोग की दुनिया कभी दिल से पूजा नहीं करती। त्याग और त्यागी सर्वत्र पूजनीय होते हैं। त्याग को देखकर सहज ही हर कोई झुक जाता है। त्याग और त्यागी सदैव सम्मानीय रहे हैं। भारतीय संस्कृति भोग प्रधान नहीं, योग व त्याग प्रधान है। त्याग परम तृप्ति की अनुभूति देता है। त्यागी से बड़ा संसार में कोई सुखी नहीं हो सकता। रविवार को नाकोड़ा जैन तीर्थ में पर्युषण महापर्व के तीसरे दिन ‘‘पौषध व्रत की साधना‘‘ पर प्रवचन देते हुए मुनिवर ने यह बात कहीं। चार हजार से अधिक श्रद्धालुओं की विराट् धर्मसभा को संबोधित करते हुए मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि अत्याधिक भोग पागलपन लाता है। अमेरिका सर्वाधिक भोगप्रधान देष हैं। वहां पागलों की संख्या भी सर्वाधिक है। योग और त्याग साधना है। साधनों से नहीं, साधना से ही जीवन का कल्याण हो सकता हैं। जो साधनों में सुख ढुंढ़ते हैं, वे नादान है। साधनों की अधिकता और अपेक्षा सदैव दु:ख लाती है।
मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि वक्त के पहले भोग से निवृश्र होकर योग साधना में लगना ही जिन्दगी का सौभाग्य है। मस्तक पर सफेद बालों का आना, कानों में कम सुनाई देना, आंखों की रोषनी का मंद पड़ जाना, शरीर का कमजोर होना, भोजन ठीक से न पचना आदि और कुछ नहीं, यमराज के दूत के आगमन का पूर्व संदेष है। इतना सब होते हुए भी यदि इच्छा-तृष्णा और आशा-अपेक्षा का पिण्ड नहीं छूटता है तो यह जीवन की निष्फलता का संकेत है। मुनिवर ने कहा कि एक या एक से अधिक दिन तक गृहत्याग कर अनासक्त भाव से साधु की तरह त्यागमय जीवन जीने को ‘पौषध‘ कहा जाता है। जैन परंपरा की यह विरल साधना है। हर जैन गृहस्थ को कम से कम एक दिन पौषध व्रत अंगीकार कर त्यागमय जीवन की साधना अष्वयमेव करनी होती है। पौषध मानसिक क्रांति है। भवरोगों के उपचार का यह औषध है। संसार में रहकर भी संसार से भिन्न रहने का यह अभ्यास है। पौषध व्रत में तमाम प्रकार के हिंसक विचारों-कार्यों और उपदेषों का त्याग होता है। आचार्य पद्मसागरसूरीष्वर महाराज ने कहा कि श्रावकाचार का एक महत्वपूर्ण व्रत है पौषध। पर्युषण महापर्व की साधना त्यागपूर्ण है। पर्युुषण का संबंध अन्तर्चेतना की जागृति से है। शरीर को सर्वस्व नहीं, सिर्फ साधन मानना होता है। जिनकी नजर सिर्फ शरीर पर है, वे साधना नहीं कर सकते। पाप का मन में प्रवेष न हों, इसकी सावधानी रखकर जीवन जीया जाना चाहिए। आचार्य प्रवर ने आगे कहा कि मन से पाप तीव्र बनते है। शुभ हो या अषुभ, जिस कार्य में मन जुड़ता है वह कार्य प्रभावी बन जाता है। अत: मजबूरी में करने पड़ते पाप और मन की पूरी रूची से किये जाते पापों में अन्तर होता है। ज्ञानी मनपूर्वक पाप नहीं करते। मजबुरी में हो जाते पापों का प्रायष्चित अल्प होता है और रूची पूर्वक किये जाते अपराधों की सजा बहुत भारी होती है। पाप को पाप मानना ही पाप को कम करने का पहला उपाय है। जो अपने अपराधों को अपराध के तौर पर नहीं देखता, वह अपराधों से कभी मुक्त भी नहीं हो सकता। पौषध व्रत पापमुक्त होने की साधना है। यह आत्मा का पोषक और औषध है।
कार्यक्रम में पचपदरा के विधायक अमराराम चौधरी विशेष रूप से उपस्थित थे। उनका व अन्य अतिथियों का नाकोड़ा तीर्थ की ओर से स्वागत किया गया। आचार्य पद्मसागरसूरीष्वर महाराज व मुनि विमलसागर महाराज से विधायक महोदय ने विशेष आर्शीवाद व मार्गदर्शन लिया। चातुर्मास समिति के संयोजक गणपतचन्द पटवारी ने बताया कि सोमवार को जैनधर्म का पवित्रतम धर्मग्रंथ धर्मसभा में आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज को अर्पित किया जाएगा। बाद में धर्मग्रंथ की पांच ज्ञानपूजाएं होगी। कल्पसूत्र ग्रंथ के आधार पर ही श्वेतांबर मूर्तिपूजक परंपरा में पर्युषण महापर्व मनाया जाता है। विष्वभर में 50 हजार से अधिक स्थलों पर सोमवार से कल्पसूत्र का वाचन और उसके आधार पर पर्युषण महापर्व की साधना होगी। रविवार को हजारों पुरूषों व महिलाओं ने पौषध व्रत अंगीकार किया। दो समय प्रतिक्रमण, सामायिक और तपस्या पूर्वक यहां नाकोड़ा तीर्थ में धर्म जागरण का अद्भूत माहौल बना है। हजारों लोग प्रतिदिन पर्युषण महापर्व के प्रवचन श्रवण हेतु यहां उमड़ रहे हैं।

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