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Wednesday, August 20, 2014

मृत्यु है जिन्दगी का सबसे बड़ा खेल : विमलसागर

बालोतरा। कोई कैसे भी तुर्रमखां या शहशांह हों, मौत भले भलों को ठिकाने लगा देती है। मनुष्य का सारा घमण्ड पलभर में मृत्यु के समक्ष चूर-चूर हो जाता है। मौत के सामने सम्पति और चालाकी काम नहीं बाती। वह तो जिन्दगी के सदाचार, सरलता, पवित्रता और उदारता का हिसाब मांगती है। जो सबको जीतने की चेष्टा करते हैं, वे भी मौत के सामने तो परास्त हो जाते हैं। बाकि सारे खेल तो छोटे-मोटे हैं, मृत्यु जिन्दगी का सबसे बड़ा खेल है। इस फाईनल मैच में ही पता चलता हैं कि हमने जिन्दगी के बाकि के मैच कैसे खेले है। ये मर्मस्पर्शी विचार बुधवार को नाकोड़ा जैन तीर्थ में क्रांतिकारी मुनि विमलसागर महाराज ने व्यक्त किये। विराट् धर्मसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने आगे कहा खुद को जीतना ही मौत को हराना है। जो सारी दुनिया को जीतने का पागलपन करते हैं, वे मौत के सामने रोते-बिलखते नजर आते हैं। संसार में रोज हजारों-लाखों लोग मरते हैं, लेकिन ज्यादातर की मौत दु:खद होती है। संत की मौत सुखद है जो समझकर मरता है उसे समाधि कहा जाता है। हाय-हाय करते हुए भी मरा जाता है और राम-राम करते हुए भी मरा जाता है। जिसने जीवनभर हाय-हाय किया हो, उसे अंत समय राम-राम जुबान पर नहीं आता। मौत हमारी जिन्दगी की एक-एक प्रक्रिया की परीक्षा है। ज्ञानी सदाचार पूर्वक जीवन जीते हैं और शांतिपूर्वक दुनिया से विदा होते हैं। ओजस्वी वाणी और धाराप्रवाह शैली में अत्यंत हृदयस्पर्शी विवेचना करने हुए मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि सिकन्दर, हिटलर, मुसोलिनी, लादेन, औरंगजेब, प्रभाकरन, भुट्टो, जीया उल हक्क आदि हजारों ऐसे नाम मिलेंगे, जिनको मौत ने ऐसे सुलाया कि सारी ख्वाहिषें खुद के साथ ही दफन हो गई। श्मषान और कब्रिस्तान में सच्चा साम्यवाद है। सबकी राख वहां एक समान हो जाती हैं और सारे मुर्दे पास-पास में दफना दिये जाते हैं। मौत हर किसी का गुरूर उतार देती है। जो अनासक्त भाव से जीता है और खुद को जीतने का प्रयत्न करता है, वही सिर्फ मौत को महोत्सव बना सकता है। मुनिवर ने आगे कहा कि जीवन का आधार ज्ञान व सदाचार पर होना चाहिए। मौत के सामने क्षमाएं और सम्पति काम नहीं आती। मौत जीवन की विरल घटना है। यह निश्चित भी है और अनिश्चित भी। मृत्यु आयेगी, यह निश्चित है। लेकिन वह कब आयेगी, कहां आयेगी, कैसे आयेगी! यह अनिश्चित है। अत: पूरी जागृति और सावधानी से जीवन जीया जाना चाहिए। जो जीवन को सामान्य समझते हैं और जो चाहा वो करते हैं, वे सब मृत्यु के समय बहुत पछताते है। मृत्यु हमारे एक-एक कार्य का हिसाब लेती है। साधक और संत इसीलिए कभी नहीं मरते। वे मरकर भी जिन्दे रहते है। उनकी साधना और उनका सदाचार उन्हें अमर बना देता है। मुनि विमलसागर महाराज ने जोर देकर आगे कहा लोग जन्मदिन मनाते हैं। मृत्युदिन क्यों नहीं मनाते! सच तो मृत्युदिन हैं, क्योंकि हम प्रतिपल मर रहे हैं। जन्म तो बहुत पीछे छोडक़र आ गये हैं। अब जन्म के दिन को याद करने का क्या औचित्य है।
यात्रा तो मृत्यु की है। जीवन तो मौत की और आगे बढ़ रहा है। तो नजर मृत्यु पर होनी चाहिए। सोच-विचार में मृत्यु होनी चाहिए। धर्मषास्त्र कहते हैं कि जो मृत्यु को नजर समक्ष रखकर जीवन जीते हैं, उनकी जिन्दगी में पाप और अपराध नहीं होते। मृत्यु का चिन्तन मनुष्य को गलतियों से रोकता है। मौत को भुलकर ही इंसान भटकता है। इसीलिए महात्मा बुद्ध ने श्मषान को गांव के बीचोबीच चैराहे पर रखने का सुझाव दिया था,ताकि बार-बार सावधानी बनी रहे। विवेकसागर महाराज ने भी धर्मसभा को संबोधित किया। चातुर्मास समिति के संयोजक गणपतचन्द पटवारी ने जानकारी दी कि बुधवार को आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज का केशलुचन हुआ। उनके साथ शेष साधु-साध्वीगण ने भी केशलुंचन करवाये। पर्युषण महापर्व से पूर्व हर जैन साधु-साध्वी को केशलुंचन करवाना अनिवार्य होता है। 22 उपवास की तपस्विनी साध्वीवर्या श्रुतनंदिता ने भी बुधवार को अत्यंत समताभाव से केशलुंचन करवाया। साधु-साध्वियों को देखकर 20 से अधिक श्रावक-श्राविकाओं ने भी यहां नाकोड़ा तीर्थ में केशलुंचन करवाये हैं।
बुधवार को ओम तप तथा श्रावण-भाद्रपद माह के उपवास रखने वाले दो सौ से अधिक तपस्वियों का समारोह में अभिनंदन किया गया। नाकोड़ा ट्रस्ट की ओर से ट्रस्टी उत्तमचन्द मेहता, मदनलाल सालेचा और महेन्द्र चौपड़ा ने तिलक कर और उपहार देकर तपस्वियों का अभिनंदन किया। 

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