बालोतरा। जैनाचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज के षिष्य क्रांतिकारी विचारक मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि दुनिया में जितनी बुराइयां है, उतनी अच्छाइयां भी हैं। दुर्गुण और दुर्जन संगठित हो जाते हैं, जबकि सद्गुण ओर सज्जन अलग-थलग पड़ जाते हैं। अगर हम अपने देखने और सोचने का नजरिया बदलें तो अपनी सारी दुनिया बदल सकती है। जीवन की दिशा बदलते ही, दशा बदल जाएगी है। बुराइयों से दूरी रहते हुए अच्छाइयों को अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए। यही सफलता और महानता का राजमार्ग है।
मुनिवर बुधवार को चातुर्मासिक विशाल धर्मसभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि दुर्गुणों का बढ़ता प्रभाव यह सिद्ध करता है कि कहीं न कहीं सद्गुणों के दीप जलाने का काम मंद पड़ गया है। मनुष्य के जीवन को राह पर लाने के बजाय, उसे भटवाने वालों की तादाद बढ़ गई है। सभी को यह मानकर चलना चाहिए कि कोई भी इन्सान संम्पूर्ण नहीं होता, लेकिन यदि हम पूर्णता के लिए सतत् पुरूषार्थ करते हैं तो कम से कम श्रेष्ठ की प्राप्ति तो हो ही जाती है। ओजस्वी प्रवचनकार मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि यह तय करना जरूरी है कि आप किनके पक्ष में रहते हो! सद्गुणों के पक्ष में या दुर्गुणों के पक्ष में! यदि हम गलत लोग और गलत राह चुनते हैं तो हमें भटकने और बर्बाद होने से कोई बचा नहीं सकता। सद्गुण प्राप्त करने की इच्छा विरलों को होती है। धर्म उपासनाएं करना सरल है। दुर्गुणों से मुक्त होना सरल नहीं है।
मुनि विमलसागर महाराज ने आगे कहा कि हृदय में कोमलता और भावुकता-दोनों होनी चाहिए। कोमलता दूसरों की व्यथा को महसूस करती है, जबकि भावुकता सद्गुणों का संयोग करवाती है। गुण किसी के भी पास हो सकते हैं। गुणवान बनने के लिए चालाक या बुद्धिमान होना जरूरी नहीं है। राष्ट्रसंत आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज ने कहा कि मन की चंचलता अशुभ कर्मों को बुलाती है, जबकि मन की स्थिरता आने वाले अषुभ कर्मों को रोकती है। मन की स्थिरता में जीवन की स्थिरता है। अस्थिर मन अशुभ माना जाता है। लोग दूध के नहीं दही के शकून स्वीकार करते हैं। दूध चंचल-अस्थिर होता है, दही स्थिरता का प्रतिक हैं, अत: उसे शुभ माना जाता है। आचार्य प्रवर ने आगे कहा कि योग्य व्यक्तियों की प्रषंसा करना चापलूसी नहीं, शिष्टाचार हैं। शिष्टाचार के बिना कोई धार्मिक नहीं हो सकता। शिष्टाचार मनुष्य की व्यावहारिक कुशलता का द्योतक हैं। बोलने में विवेक रखना, गलत न बोलना, फिजुल खर्ची न करना, बड़ों को सम्मान देना, साधु-संतो का सत्संग करना, नीति पूर्वक कमाना, उपकारी के उपकारों को न भुलना आदि षिष्टाचार के अनेक प्रेरणादायी सूत्र है। पर निन्दा का त्याग करना, चिश्रवृतियों का निरोध करना तथा ग्राह्य-अग्राह्य का भेद समझना साधक होने का लक्षण है। पंन्यास देवेन्द्रसागर महाराज ने कहा कि सद्गुणों से जीवन समृद्ध बनता है। स्वयं के दोष देखने और दूसरों के गुण देखने की दृष्टि होनी चाहिए। चातुर्मास समिति के संयोजक गणपत पटवारी ने बताया कि 8 अगस्त से नाकोड़ा तीर्थ में सामूहिक अेाई (आठ उपवास)े की साधना प्रारंभ होगी। सैकड़ों लोग आठ दिन के उपवास का संकल्प लेंगे। 112 साधकों ने तीन दिन के सामूहिक तेले की तपस्या निर्विघ्न पूर्ण की। 250 साधकों ने 16 दिवसीय कषाय जय तप भी भव्यता से यहां संपन्न किया हैं।
मुनिवर बुधवार को चातुर्मासिक विशाल धर्मसभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि दुर्गुणों का बढ़ता प्रभाव यह सिद्ध करता है कि कहीं न कहीं सद्गुणों के दीप जलाने का काम मंद पड़ गया है। मनुष्य के जीवन को राह पर लाने के बजाय, उसे भटवाने वालों की तादाद बढ़ गई है। सभी को यह मानकर चलना चाहिए कि कोई भी इन्सान संम्पूर्ण नहीं होता, लेकिन यदि हम पूर्णता के लिए सतत् पुरूषार्थ करते हैं तो कम से कम श्रेष्ठ की प्राप्ति तो हो ही जाती है। ओजस्वी प्रवचनकार मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि यह तय करना जरूरी है कि आप किनके पक्ष में रहते हो! सद्गुणों के पक्ष में या दुर्गुणों के पक्ष में! यदि हम गलत लोग और गलत राह चुनते हैं तो हमें भटकने और बर्बाद होने से कोई बचा नहीं सकता। सद्गुण प्राप्त करने की इच्छा विरलों को होती है। धर्म उपासनाएं करना सरल है। दुर्गुणों से मुक्त होना सरल नहीं है।
मुनि विमलसागर महाराज ने आगे कहा कि हृदय में कोमलता और भावुकता-दोनों होनी चाहिए। कोमलता दूसरों की व्यथा को महसूस करती है, जबकि भावुकता सद्गुणों का संयोग करवाती है। गुण किसी के भी पास हो सकते हैं। गुणवान बनने के लिए चालाक या बुद्धिमान होना जरूरी नहीं है। राष्ट्रसंत आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज ने कहा कि मन की चंचलता अशुभ कर्मों को बुलाती है, जबकि मन की स्थिरता आने वाले अषुभ कर्मों को रोकती है। मन की स्थिरता में जीवन की स्थिरता है। अस्थिर मन अशुभ माना जाता है। लोग दूध के नहीं दही के शकून स्वीकार करते हैं। दूध चंचल-अस्थिर होता है, दही स्थिरता का प्रतिक हैं, अत: उसे शुभ माना जाता है। आचार्य प्रवर ने आगे कहा कि योग्य व्यक्तियों की प्रषंसा करना चापलूसी नहीं, शिष्टाचार हैं। शिष्टाचार के बिना कोई धार्मिक नहीं हो सकता। शिष्टाचार मनुष्य की व्यावहारिक कुशलता का द्योतक हैं। बोलने में विवेक रखना, गलत न बोलना, फिजुल खर्ची न करना, बड़ों को सम्मान देना, साधु-संतो का सत्संग करना, नीति पूर्वक कमाना, उपकारी के उपकारों को न भुलना आदि षिष्टाचार के अनेक प्रेरणादायी सूत्र है। पर निन्दा का त्याग करना, चिश्रवृतियों का निरोध करना तथा ग्राह्य-अग्राह्य का भेद समझना साधक होने का लक्षण है। पंन्यास देवेन्द्रसागर महाराज ने कहा कि सद्गुणों से जीवन समृद्ध बनता है। स्वयं के दोष देखने और दूसरों के गुण देखने की दृष्टि होनी चाहिए। चातुर्मास समिति के संयोजक गणपत पटवारी ने बताया कि 8 अगस्त से नाकोड़ा तीर्थ में सामूहिक अेाई (आठ उपवास)े की साधना प्रारंभ होगी। सैकड़ों लोग आठ दिन के उपवास का संकल्प लेंगे। 112 साधकों ने तीन दिन के सामूहिक तेले की तपस्या निर्विघ्न पूर्ण की। 250 साधकों ने 16 दिवसीय कषाय जय तप भी भव्यता से यहां संपन्न किया हैं।
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