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Wednesday, July 23, 2014

परिवार है पहली पाठशाला: विमलसागर महाराज

बालोतरा। राष्ट्रसंत आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज के क्रांतिकारी शिष्य मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि परिवार मनुष्य की पहली पाठशाला है। यहां से प्राप्त हुई शिक्षाएं जीवनभर साथ चलती हैं। इसीलिए हर एक को परिवार में प्रारंभ से ही सुसंस्कारों और सद्गुणों की शिक्षा-दीक्षा दी जानी चाहिए।
मुनिवर बुधवार को नाकोड़ा जैन तीर्थ में विराट् धर्मसभा को संबोधित कर रहे थे। ‘पारिवारिक-सामाजिक रिश्ते और स्नेह संबंध‘ विषय पर विस्तृत विवेचना करते हुए मुनि ने कहा कि कुटंब तीन प्रकार के होते हैं। सद्गुणमय कुटुंब, दुर्गुणमय कुटुंब और नाते-रिश्तों से बना कुटुंब।
विद्धान मनिषी मुनिवर ने आगे कहा कि नाते-रिश्ते तो जीवनकाल के दौरान ही अनेक बार बनते-बिगड़ते और समाप्त होते हैं। वे शाष्वत नहीं हैं। कुछ रिश्तों में मधुरता होती हैं तो कुछ रिष्ते मजबूरी में निभाये जाते हैं। लेकिन सद्गुणों और दुर्गुणों का कुटुंब जीवन को बेहद प्रभावित करता है। जीवन की दषा और दिषा का सारा दारोमदार इन्हीं पर होता है। हमारी सफलता - विफलता और हमारे सुख-दुख सद्गुण और दुर्गुण रूपी कुटुंब ही निर्धारित करते हैं।
मुनि विमलसागर महाराज ने आगे कहा कि परिवार और समाज के रिष्तेदार सद्गुणों से भरे होने चाहिए। यही हमारा सौभाग्य है। यदि वे दुर्गुणों के भंडार है तो यह हमारा घोर दुर्भाग्य है। मंदिर-मस्जिद -गिरजाघर या गुरूद्धारे हमारा सौभाग्य निर्धारित नहीं करते। हमारे व हमारे परिवार के सद्गुण ही हमारा सही निर्धारण करते हैं। इसीलिए परिवार और समाज में सुसंस्कारों के चिन्ता और चिन्तन होने चाहिए।
मुनि प्रवर ने आगे कहा कि रातोंरात कोई चमत्कार नहीं होगे और भगवान या ईष्वर-अल्हा हमारे रक्षण के लिए नहीं आयेगें। हमारे सद्गुण ही हमारी रक्षा करते हैं और हमें महान् बनाते हैं। रिश्तों के इस अध्यात्म-विज्ञान को ठीक से समझना चाहिए। सद्गुण और दुर्गुण इस जन्म के बाद आने वाले जन्मों में भी साथ चलते हैं। यही कारण है कि कुछ लोग जन्म से ही सज्जन होते हैं और प्रांरभ से ही दुर्जन और दुष्ट! हमारे अच्छे-बुरे संस्कार वृश्रियां बनकर हमारा पीछा करते हैं। सद्गुणों की शिक्षा ही साधना है। वही अध्यात्म है। इसके अतिरिक्त सार्थक जीवन की कोई दुसरी डगर नहीं है।
आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज ने कहा कि भारतीय संस्कृति की प्राचीन परंपराओं में धर्म- अध्यात्म की प्रेरणा है। जन्म, परवरिश, शिक्षा, सगाई, विवाह, व्यापार, समाज, परिवार और मृत्यु-हर व्यवहार में धर्म-अध्यात्म की शिक्षाएं हैं। सदाचार की रक्षा के लिए विवाह का निर्धारण हुआ है। युवक- चुवतियों को पतन के मार्ग पर जाने से रोकने के लिए यह सामाजिक प्रथा अस्तित्व में आई है। आचार्यश्री ने आगे कहा कि छत्रपति शिवाजी के आध्यात्मिक गुरू स्वामी रामदास विद्धान थे और विवाह के दौरान् ही ब्राह्मण के मंत्रो का रहस्य समझकर वैरागी बन गये थे। भारतीय संस्कृति के उपदेया और यहां का साहित्य यह सिद्ध करता है कि वैष्याएं और लुटेरे भी सदाचारी बनकर जीवन को कल्याण के मार्ग पर ले गये। मनुष्य का जन्म हजारों साल के बिगड़े इतिहास को सुधारने का स्वर्णिम अवसर है। गणिवर प्रशांतसागर महाराज ने कहा कि शरीर व वैभव अषाष्वत है। मृत्यु निरंतर निकट आ रही है। अत: धर्म का आराधन कर जीवन को सफल करना चाहिए।
चातुर्मास समिति के संयोजक गणपत पटवारी ने धर्मसभा का संचालन किया। ‘श्री नाकोड़ा भैरव भवन‘ नामक आधुनिक धर्मशाला के निर्माता सादड़ी निवासी ओमप्रकाश रांका और पूर्व राज्यमंत्री गोपाराम मेघवाल धर्मसभा में विशेष रूप से उपस्थित थे। पूर्व राज्यमंत्री मेघवाल ने मुनि विमलसागर महाराज से भेंट कर मार्गदर्शन व आर्शीवाद लिया। इससे पूर्व आचार्य प्रवर व संत समुदाय ने श्री नाकोड़ा भैरव भवन धर्मशाला का अवलोकन कर आवश्यक निर्देश दिये। वहां केशर-चंदन के पगलिये और मंगलपाठ हुआ।

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